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Showing posts from August 24, 2015

बचपन

इक चवन्नी और मुट्ठी जितनी जेब थी हसी अम्बर  जैसी  फैली हवा  जैसी  ख्वाहिशें क़भी इधर  कभी उधर कभी उस गली कभी उस दुकान लपलपाती जीभ ऐसी जो  हर खाने की चीज़ पर मन बना लेती थी बचपन कुछ ऐसा ही तो था याद आता है रह रह कर जब बड़ी बड़ी जेबों में छुट्टे पैसे कभी कबार खनकतें हैं तो ...