इक चवन्नी और मुट्ठी जितनी जेब थी हसी अम्बर जैसी फैली हवा जैसी ख्वाहिशें क़भी इधर कभी उधर कभी उस गली कभी उस दुकान लपलपाती जीभ ऐसी जो हर खाने की चीज़ पर मन बना लेती थी बचपन कुछ ऐसा ही तो था याद आता है रह रह कर जब बड़ी बड़ी जेबों में छुट्टे पैसे कभी कबार खनकतें हैं तो ...
ScreenPlay Writer | Author | Lyricist in Bollywood