Short Story
"बम्बई की बरसात"
रेडीओ पर चलता गीत "ऐ दिल - ए - नादान" जिसके संगीतकार हैं श्री ख़य्याम साहेब और गीतकार हैं जाँ निसार अख़्तर साहेब अपने मशहूर गीतकार जावेद अख़्तर साहेब के वालिद साहेब और अभिनेता फ़रहान अख़्तर के दादा श्री। ख़य्याम साहेब के संगीत में भारतीय साहित्य संगीत की मिठास कूट-कूट कर भरी है। किसी भी गीत को ले लो आपको साहित्य संगीत के तार और तरंग गाते, गुनगुनाते और नाचते मिलेंगे। झीनी-झीनी बारिश की जालीदार बूँदों की झालर को मग्न हो कर देखता मैं अपने घर की खिड़की से, दुनिया के शोर-ओ-गुल से परे किसी अलग ही जहाँ में घूमता मेरा मन सुकून और चैन से सराबोर खोया-खोया। अब्र को निहारते मेरे ये दो नैन जिनमें नमी थी, आस थी, प्यास थी और ख़ुद को खोजने की तलब की मैं किस तरफ़ भाग रहा हूँ। क्या मैं सही हूँ या सही ग़लत से परे मेरे ख़्वाब और ये जो बेचैनी है, ये क्यूँ हैं। क्यूँ हर वक़्त अपनी ही धुन में घूमता हूँ, क्यूँ ला-पता हूँ, क्या है जो पाना चाहता हूँ, किसको पाना चाहता हूँ, या कुछ भी नहीं पाना चाहता क्यूँकि उसको पा लेने के बाद क्या। फिर कोई नई चाह, फिर कोई नई दौड़, फिर कोई नई कोशिश। क्यूँ आख़िर क्यूँ। मैं क्यूँ हूँ और क्या हूँ। क्या है मेरा अस्तित्व। ये सब ख़याल ये बरसात लेके आयी है फिर से एक बार। सुनसान राहों पर चलता मैं, गिरता सम्भालता मैं, रुकता बिखरता मैं, थकता थमता मैं।
हाजरों सवाल और सबका मिलाकर सिर्फ़ एक कि मैं कौन हूँ और क्यूँ हूँ। बम्बई की बरसात कितने ही अलग-अलग तरह के एहसास और ख्याल ले कर आती है। मन कभी पक्की सड़क पर और कभी कच्ची पगडंडी पर बे-लगाम भागता फिरता है। तांडव करती ये सांसें और शरीर के हर अंग में एक कम्पन कि ख़ुद को ऐसे भागने से रोक। भीगी-भीगी मिट्टी की ख़स्बू और हवाओं में डूबी प्रकृति का प्रेम, स्नेह और करुणा जब चेहरे को छू के गुज़रे तो ऐसा लगता है कोई अपना बड़े वक़्त के बाद मिलने आया। इन हवाओं में कुछ अलग ही कशिश और क़रीबी सी लगती है। ऐसा लगता है बाहों में भर कर बैठे रहें घंटों-घंटों बिना कुछ कहे, बिना कुछ सुने।
बम्बई की बरसात किसी के लिए इश्क़, किसी के लिए ख़्वाहिश, किसी के लिए तरंगे, किसी के लिए उमंगे, किसी के लिए सुकून, किसी के लिए मिलने की वजह, किसी के लिए किसी को याद करने का बहाना, किसी के लिए दिल को दिलासा दिलाने का हसीन मंज़र। वक़्त बे वक़्त जज़्बातों का आलम और दिल का मौसम बादल जाए बरसात हाए ये बरसात क्यूँ आए। और मेरे जैसे दार्शनिक और तत्वज्ञानी हो जाते हैं। कहते हैं ना बहकते जज़्बात और साँस, सोच रोके ना रुके किसी से। सोच पर किस का नियंत्रण हो पाता है गर हुआ तो वो आध्यात्मिक हुआ। बरसात में भीगते-भीगते कितने ही आँसू घुल मिल गए बूँदों से और मेरी तरफ़ देख कर अलविदा तक नहीं कहा। मैं खड़ा उनको देखता रहा और वो बूँदों के हाथों में हाथ डाल कर ऐसे क़तरा कर चले गए जैसे मुझे जानते तक नहीं।
बदरी नैनों में कजरी लगाए इठलाती, मटकती अम्बर में फेरे करती। देख-देख कर उसको मन करता पकड़ कर बिठा लूँ और पूछूँ तेरा इतना ख़ुश रहने का राज बता सबको। तुझे कौन सा ऐसा मंतर मिला है। बरसते बादल, चमकती बिजली, सुलगती धरती, प्यासा समंदर, तेज़ हवाएँ और मैं सब के सब एक जैसे ही हैं।
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