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इक तरफ़ा इन्तज़ार


 कभी अलफ़ाज़ कम पड़ जाते थे 
कभी एहसास कम पड़ जाते थे
फासला तो साँसों के आने जाने तक का था मगर 
       कभी तुम्हारे तो कभी हमारे कदम कम पड़ जाते थे !!! 

मुद्दतों से इस उम्मीद और इन्तज़ार  में  उसी चौराहे पर अक्सर उसी वक़्त बैठे रहते हैं  कभी जहाँ  से तुम  गुजरती थी की शायद तुम आज फिर वहीँ से गुज़रो तो नज़रों की अधूरी बातें जो आज भी उसी चौराहे पे तुम्हारा इन्तिज़ार करती है तुमसे मुखातिब हो जाए और पूछें क्या बे ब्यान इश्क़ जो तुम्हे दिख के भी नहीं दिखा उससे रिहा नहीं हो पाऊंगा मैं। क्या आज  उस धुप की आंच तुम्हारी आँखों को चुंधिया देती है जो मेरा जिस्म जलाती थी और हस्ती थी मुझपे और कहती  उसको तो ये  जलन आंच नहीं लग रही है इस एक तरफ़ा मोहब्बत का भोज लेके तुम क्यों मुझे रोज़ चुनौती देते हो।
मूसलसल तेरा इन्तज़ार और इक दीदार की ख़ातिर वक़्त को हमने अपनी उम्र के साथ बहने दिया . बे- इख़्तियारी और बे ख़याली हमसे उल्फ़त लेती  रही और तुम बस देखते रहे और अनदेखा भी करते रहे. वक़्त के इंतज़ार का सलीक़ा हमने  सीखा तेरे अन्दाज़ में और इस ऐतबार में की कभी तो तुझे इश्क़ चौराहे पर खड़ा दिखेगा गर मुझे तुम देख नहीं पा रहे हो तो....... 


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