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Short  Story  


"पुश्तैनी हवेली" 



पुश्तैनी हवेली जिसके हर कोने पे कायी जमी पड़ी है। दरों दीवारों पे उम्मीद की दरारें हैं। धुँधली रोशनी के साये और छांव के निशाँ हैं। परछाइयों के पैरों के साएँ, आहटों के शोर हैं। सन्नाटों का कोहरा एकांत में शांत बुत बना खड़ा है। रात का बिस्तर सिकुड़ कर जमी पे पड़ा है। बरसात की बूँदो के आँसू रोते-रोते निहार रहे हैं।हर इक दरवाज़ों पे रिश्तों की हथेलियों की थपथपाहटे हैं। मेरी नानी माँ की पुश्तैनी हवेली ऐसे ही खड़ी है। बचपन में लड़खड़ाते क़दम और तोतली ज़बान में गिरते पड़ते, दौड़ते हुए नानी की बाहों से लिपट जाते। माँ की गोद से भी ज़्यादा प्यारी नानी माँ की बाहें। उनके आगे पीछे बस घूमते रहो दिनभर। नानी माँ के सुख दुःख के कारण उनके नाती और नतनी। आँख और जिगर के टुकड़े। जैसे-जैसे हम बड़े हुए नानी माँ बुज़ुर्ग होती गयी जिसका एहसास मुझे तब हुआ जब वो अपने अंतिम समय में पहुँची। उनको खोने का सत्य सामने था लेकिन फिर भी मुझे उसे मानना नहीं था। उनको खोने की पीड़ा अत्यंत ही दर्दनाक और भीषण। हर इंसान की आख़िरी ख़्वाहिश होती है और मेरी थी कि मैं उनको ऐसे जाता हुआ ना देखूँ और ईश्वर ने सुन भी लिया। उनकी अंतिम बिदाई  के वक़्त मैं वहाँ नहीं था और ना ही जाना चाहता था। उनसे कई कोसो मील दूर था। जब पता चला तो ऐसा लगा कुछ ऐसा है जो मर गया मेरे अंदर जिसको मैं कभी जीवित नहीं कर सकूँगा। शायद माँ से भी कहीं ज़्यादा उनसे प्रेम था मुझे उनके जाने के वक़्त मैं विलाप में था लेकिन किसी से कुछ नहीं कहा और आज तक ना किसी से कह पाया की उनके जाने का दर्द आज भी मुझे सताता है। उनसे जब मिला था वो बहुत ही बीमार थीं। मुझे देख कर वो बहुत रोयीं और बिस्तर पर बे-जान जिस्म से आत्मा को निकलने की प्रतीक्षा ही कर रहीं थीं बस। वो आख़िरी बार था जब मैं उनसे मिला और उसके बाद फिर मैं कभी नहीं जा पाया उनसे मिलने और ना मैं उनको ऐसे देख पाता इसलिए जाने की हिम्मत भी नहीं हुई। कई बार अकेले में रोया और ख़ुद को बहुत बहलाया की जो आया है उसे तो जाना ही है। माँ कई बार बोलती नानी किसी दिन भी शरीर त्याग देंगी आख़िरी बार मिल आ लेकिन मैं बहाना बना देता। शायद माँ भी जानती थी कि मैं उनको ऐसे जाता हुआ नहीं देख पाउँगा इसलिए उन्होंने कभी मुझे ज़बरदस्ती जाने को नहीं कहा। उनके मरने के बाद मैं फिर ननिहाल भूल गया और ना कभी गया कई बरसों तक। माँ भी बहुत कम जाती या वहाँ की बात करती। नानी के जाने के बाद ननिहाल मानो कभी था ही नहीं जैसे। 

आज इतने बरसों बाद फिर जाना हुआ वो भी क्यूँ,  क्यूँकि सबको बँटवारे में हिस्सा लेना है इसलिए माँ को भी बुलाया गया। मैं माँ आज आयें हैं। जिस हवेली में हम सब बड़े हुए बचपन बिताया आज वही हवेली टूटी फूटी खंडर हुई पड़ी है जिसकी तरफ़ किसी को देखना तो दूर बात भी करना नहीं सूझता है। सब ने खेत खलियाँ बाग़, पशु, टूवेल, ट्रैक्टर, ज़ेवर, सब में हिस्सा माँग लिया और टूटी फूटी खंडर हवेली को गिरा कर उसकी ज़मीन को भी बाटने की बात कर डाली। मैं खड़ा बस नानी माँ के सजाए और समेटे इन बहुमूल्य और अनमोल चिराग़ों को बुझता हुआ देख रहा था। सबको सिर्फ़ ज़मीन चाहिए थी। बँटवारा हुआ तो माँ के हिस्से में भी बहुत ज़मीन आयी तो माँ ने पूछा मुझसे तू क्या चाहता है बेटा तब मैं खड़ा हुआ सबके सामने और बोला मुझे सिर्फ़ नानी माँ की हवेली चाहिए बाक़ी सब आप लोग ले लो। सब हँसने लगे मुझ पर की ये जज़्बाती हो के बोल रहा है। सब ने कहा उस खंडर हवेली का क्या करोगे वहाँ तो कोई अब रहता भी नहीं सिर्फ़ साँप, चूहे और जनवार जाते हैं। मैं चुप खड़ा रहा और सबको देखता रहा फिर थोड़ी बाद सबसे बड़े मामा जी बोले ठीक है फिर तुमको बाक़ी कुछ और नहीं मिलेगा। मैने माँ की तरफ़ देखा और माँ ने नज़रों से हामी भरी। फ़ैसला हो गया सब बहुत ख़ुश थे ज़मीने मिलने पर। मैं माँ को लेके गया नानी माँ की हवेली पे हर एक कोने में ऐसा लग रहा था जैसे यादें दौड़ रही हैं। छुप रही हैं। पुकार रही हैं। आँख मिचौली खेल रही हैं। मेरी आँख से आँसू गिर रहे थे जैसे-जैसे मैंने क़दम बढ़ाए हवेली में। हर तरफ़ नानी माँ की आहट और उनकी खुस्बू। उधड़ी-उधड़ी दीवारों से रिसती बदरपुर और बालू की धूल आँखों में शूल के जैसे चुभ रही थी। ऐसा लग रहा था नानी माँ का सीना रिस रहा है और लहू बह रहा है। जिन दरवाज़ों की ओट में हम छुप छुप  कर आँख मिचौली खेलते वही दरवाज़े उदास आँखों से देख रहे थे। और कह रहे थे कितने बरसों बाद तू आया रे देख मैं भी बुज़ुर्ग हो गया शायद मेरा भी अंतिम समय ही चल रहा है। ये सब मुझसे देखा नहीं जा रहा था फिर वही सब दिखने लगा जिससे भाग गया था कई साल पहले। उस कमरे में जब पहुँचा जहाँ नानी माँ ने अपनी अंतिम साँस ली। उनका काठ का तख़्त वैसे ही रखा था बस अब टूट गया था कहीं कहीं से और धूल जम गयी थी। उसके आगे घुटने पे बैठ गया मानो किसी मंदिर की चौखट पे माथा टेक रहा हूँ। हाथ जोड़े मैं उस तख़्त और उस कमरे की हर दीवार को निहारता रहा एक टुक। माँ खड़ी मुझे देखती रही लेकिन कुछ कह नहीं रहीं थी उनको भी पता था मेरे अंदर छुपे उस दर्द की टीस का जो कितने ही साल मुझे चुभती रही है। बहुत देर तक मैं माँ उस कमरे में ही रहे फिर माँ ने मुझे उठाया और बोली चल। मैं जैसे जैसे क़दम पीछे ले रहा था उतने ही क़दम में और हवेली मैं घुस रहा था। 

नानी माँ की पुश्तैनी हवेली आज फिर से बन गयी है। मैंने  उस दिन निकलते ही फ़ैसला किया की इसको फिर से वैसा ही करवा दूँगा जैसी नानी माँ के ज़िंदा रहने पर थी। आज मैं, माँ, भाई, बाबा सब आते जाते हैं। जब भी वक़्त मिलता है अपनी इस पुश्तैनी धरोवर के दर्शन करने आ जाते हैं। बड़े मामा जी इसका अच्छे से ख़याल रखते हैं वही एक हैं जिनको इस धरोवर से सरोकार था और उनको उस दिन मेरे अंदर हवेली के प्रति लालच नहीं स्नेह दिखा इसलिए उन्होंने तुरंत हवेली मुझे दे दी बिना किसी सवाल जवाब के और सब लोग इतने लोभ में थे ज़मीनों के किसी ने कोई सवाल भी नहीं किया। 


धरोवर एक पवित्र सरोवर होती है उसका ध्यान रखो। अपने बुज़ुर्गों और पूर्वजों का सम्मान करो। 



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