Skip to main content

 Short  Story 


 

"छज्जे का इश्क़"  

दिल्ली की जून की धूप का रूप इतना चम-चम और चमकीला की उससे नैन मिलाना ना-मुमकिन और उसी धूधिया धूप के सौंदर्य के मन भावन दृश्य में नैन मटक्का हो गया जब गली से गुज़रते वक़्त मोहल्ले में आयी नई-नई किरायेदार से जो तमतमाती धूप में पहले माहले के छज्जे पे ऐसे लटकी हुई थी जैसे सीलिंग से झूमर। उसको देखते ही आँखें चुम्बक के जैसे उसके चेहरे पे चिपक गयी और उसकी चीख़ती आवाज़ भी सुरीली लगी जिससे कान में से ख़ून निकल आए ऐसी पतली तीखी आवाज़। कहते हैं ना पहली नज़र का प्यार अनूठा और चौकाने वाला होता है। बस वही हुआ उसने जब मुझे देखा तो चिल्ला कर बोली हाँ! क्या है? क्या घूर रहे हो? मैं सकपका कर रह गया और गर्दन नीचे करके धीरे से खिसक गया वहाँ से। ज़ालिम और ज़हर ये लड़की कुछ नहीं सोचती है। कहीं भी कुछ भी किसी को भी डाँट  देती है या लड़ पड़ती है। क्रांतिकारी और बाग़ी दोनों। ख़ूबसूरती मनभावन लुभावनी और ख़तरनाक होती हीं हैं। 
जब से उसे देखा बस उसके छज्जे पे नज़र की वो नज़र आ जाए और जब आती दिन बन जाता। ख़ुशी- ख़ुशी दिन रात कट जाते। पढ़ायी लिखायी, यारी दोस्ती, भाईचारा सब दर किनार कौन हैं ये सब?  क्या मैं इनको जानता हूँ। बिलकुल भी नहीं जानता इस तरह के किसी भी रिश्ते या लोगों से मेरा कोई सरोकार नहीं। 
मोहब्बत मोम के जैसे होती है जितना सुलगेगी उतना पिघलेगी। उसके छज्जे पे उल्लू के जैसे मैं नज़र बट्टू की तरह नज़र बिठाए और गड़ाये रहता। कभी वो देखती तो घूर देती और मैं नज़र नीचे कर लेता और वो हँसने लगती मुझपे, लेकिन फिर भी दिल धीट माने क्यूँ  गली के दिन से रात तक पाँच से दस चक्कर तो लग ही जाते। गरमी की भीषण मार झेलते हुए भी छज्जे का इश्क़ मेरा उफान पे पहुँच गया था की किसी दिन तो इससे बात करके ही मानूँगा। इश्क़ पे ज़ोर चले ना चले लेकिन शोर ज़रूर हो जाता है। लिया ना दिया और मैं प्रसिद्धि पा चुका था आशिक़ की। दोस्त कुछ करें ना करें अफ़वा और मज़े उड़ाने में पहले आते हैं। मैं और संदीप मेरा जिगरी यार उसकी गली के चक्कर मार-मार के थक गए लेकिन लड़की टस से मस ना होती दिख रही थी। संदीप बोला छोड़ इसको इसके चक्कर में रंग बादल गया हम दोनों की त्वचा का लेकिन लड़की के जज़्बात ना बदले भाई। मान जा क्यूँ धूप में तन, मन जला रहा है अपने साथ-साथ मेरा भी। संदीप के इतना कहने पे दिल सिकुड़ गया और मुँह मायूसी से छोटा। उसको भी समझ आ गया जब तक लड़का ठोकर नहीं खाएगा मानेगा नहीं। कहते है ना किसी को बोलो वो खूँटे पे मत बैठना तो आदमी तजुर्बेकार की बात ना सुनकर सबसे पहले खूँटे पे बैठेगा। जब तक ख़ुद तज़ुर्बा नहीं लेता बंदा तब तक बाज़ कहाँ आता है। उसने भी घुटने टेक दिए मेरे दिलजले आशिक़ दिल के आगे। 
शाम के पाँच बजे डोलची लेके वो मदर डेरी पर दूध लेने आती तो मैं भी उसी वक़्त दूध लेने जाता और क़तार में खड़ा हो जाता कभी उसके बिलकुल पीछे तो कभी दो चार लोगों के साथ। पार्क में घूमने आती तो अपना भी कसरत का वक़्त हो जाता है कभी वो आगे तो हम पीछे तो कभी वो पीछे तो हम आगे। आगे पीछे चलने के अलावा कुछ और चल नहीं रहा था। और एक दोपहरी उसकी गली से गुज़रता हुआ जा रहा था और वो छज्जे पे खड़ी थी। उसने पहली बार बड़े ही प्यार से देखा और मुस्कुरायी। मैंने  भी देखा और मुस्कुराया ऐसा लगा जैसे इतने दिनों की तपस्या का फल मिल गया हो। कहते है ना देर आए लेकिन दुरुस्त आए। ऐसा कुछ सब सोच लिया और जैसे ही उसके घर के ठीक नीचे पहुँचा उसने कहा सुनो! मैं रुका और ऊपर देखा और बोला हाँ बोलो। मुझे लगा कुछ पूछेगी मेरे बारे में या कहेगी लेकिन पूछा क्या? तुम्हारा वो दोस्त कहाँ है कई दिनों से तुम्हारे साथ दिखा नहीं। ठीक तो है वो। मैं उसे देखने लगा और अचम्भित भी था। मैंने कहा वो अपने मामा जी के यहाँ गया है अगले महीने आएगा। उसका चेहरा उतर गया ऊपर छज्जे पर लटके हुए और मेरा नीचे गली में खड़े। मन हुआ उसको बोल दूँ मैंने धूप में अपने अंग का रंग बदलवा लिया तुम्हारे चक्कर में और तुम मेरा छोड़ के मेरे दोस्त का पूँछ रही हो। मैं घर आ गया और सोचता रहा संदीप तो उसको नहीं चाहता और ना उसको उसमें कोई दिलचस्पी है फिर इसको कैसे उसमें हो गयी दिलचस्पी। कहीं संदीप सुमडी में तो नहीं तीर चला रहा था मेरे पीछे से और मुझे बोलता रहता था कहाँ इसके चक्कर में लगा है। 
छज्जे के इश्क़ ने दो जिगरी दोस्तों के बीच दरार डाल दी थी। मैंने  फिर भी हार नहीं मानी क्यूँकि अभी भी एक महीना था संदीप के आने में तो मैंने  ठान  लिया की अब इसको पटा कर ही छोड़ूँगा। अब चक्कर ज़्यादा हो गए। मैं उसके आगे पीछे मक्खी के जैसे भिनभिनाता। मंदिर, मार्केट, पार्लर, डेरी, पार्क, कोई ऐसी जगह नहीं थी जहाँ मैं उसके पीछे पीछे ना गया और उसको जता भी दिया की मैं तुम्हारे चक्कर में ही आ रहा हूँ। और एक दिन उसने मुझे मार्केट में दबोच लिया सीधा सामने आ कर खड़ी हो गयी और बोली हाँ रोमीओ क्या छिछोरापन चालू है तुम्हारा। जिन्नाद के जैसे जहाँ नज़र घुमाओ या जाओ तुम पहले से ही वहाँ होते हो। पहले तो कहीं कहीं दिखते थे लेकिन कुछ दिनों से कुछ ज़्यादा ही आशिक़ी का भूत चढ़ गया है। दिन दहाड़े मोहब्बत के पहाड़े भुलवा दूँगी समझे। आस पड़ोस के हो इसलिए कुछ कहती नहीं। लेकिन अब ये सब हरकतें बंद करो समझे वरना समझा दूँगी। मैंने  झैंपते-झैंपते कहाँ मैं तुमसे प्यार करता हूँ। वो हँसने लगी ज़ोर ज़ोर से और मैं शर्मिंदा हो गया। नज़र नीचे कर ली और वो हँसती रही। जब नज़र ऊपर की तो मेरी आँख से पानी टपकने लगा। ये देख कर वो चुप तो हुई लेकिन पिघली नहीं। मैं अपनी आशिक़ी का जनाज़ा लेके घर पहुँचा  तो सामने सोफ़ा पर संदीप फैल के बैठा हुआ रूह अफ़जा पी रहा था। मुझे देख के बोला हाँ भाई क्या हाल? अब इसे क्या कहूँ यार ने ही लूट लिया घर यार का? और क्या पता इसको पता भी ना हो की छज्जे वाली को इसमें रूचि है मुझमें नहीं। हिम्मत करके संदीप को बताया अकेले में सब और उसने सहानुभूति तो दी लेकिन खिल्ली भी बहुत उड़ाई। कमीने ने पहले अफ़सोस जता-जता  कर  सब उगलवा लिया एक एक बात। जब सब जान लिया उसके कुछ देर बाद हँसने लगा और बोला मना  कर रहा था शुरू से लेकिन तुझको खूँटे पे बैठ कर मानना  था। मज़े मिल गए। चल अब पढ़ाई पे ध्यान दे। 

संदीप ने दोस्ती निभायी और उसकी गली से फिर कभी ना मैं गुज़रा ना ही संदीप। कुछ महीनों बाद छज्जे वाली ने घर बदल लिया और दूसरे मोहल्ले में चली गयी।


Comments

Popular posts from this blog

Short Story  "वशीकरण"  इंतज़ार करते-करते विभा का आत्म विभोर हो जाता। सहर से संध्या और रात्रि कैसे, कब, क्यूँ बीत जाती ध्यान ही नहीं रहता। मोक्ष, मुक्ति, मोह और आत्म निरीक्षण सब के सब सिर्फ़ एक ही नाम का जाप विभा। विभा का अर्थ किरण होता है और मेरी चमकती दहकती किरण का कारण भी यही थी। सुंदर, गेहुआ रंग, छोटी क़द काठी, रेशम से केसु, रूखसार पर हँसी के बुलबुले उमड़ते सदैव, नैन मृगनैनि जिनसे नज़रें मिले तो आप उन्माद में चलें जाए। अखियंन में कजरा लगाए वो ठुमक-ठुमक आती और बग़ल से गुज़रती हुई जब निकलती तो मन में मृगदंग बजने लगता,  मृगतृष्णा हो जाती। जितनी दूर वो जाती साँसों में तल्ख़ी और गले में चुभन होती। जीवन जैसे आरम्भ और अंतिम छण तक पहुँच जाता उसके आगमन और पलायन से। प्रेम की परिभाषा और उसका विवरण विभा। मेरे अंतर ध्यान के मार्ग की मार्ग दर्शक, वो यात्रा जिसका कोई पड़ाव या मंज़िल ना हो। भोर होती ही उसके घर की चोखट पर मेरी नज़रें नतमस्तक होतीं, ध्यान की लग्न जागती, मन की तरंगे उज्वलित उसके दर्शन से होतीं। उसके आगे पीछे, दाएँ बाएँ, दूर क़रीब, हर स्थान पर मैं ख़ुद को पाता।  मेरी आशिक़ी क
 Short Story  "रेल में प्यार के खेल में"  दिल्ली से निकली रेल और मैं नीचे वाली बर्थ पर लाला लखेंदर के जैसे पसर कर लेट गया थोड़ी देर बाद एक सुंदर सुंदरी नाक में चाँदी की मुंदरी पहने फटी जीन और शॉट टॉप गले में लम्बी सी चेन जिसमें आधा टूटा हुआ दिल नुमा आकार का लॉकट। सामने मेरे पेरों के खड़ी, एक निगाह मुझे निहारा और समझ गयी कि ये ना उठेगा अपनी बर्थ से फिर मेरे सामने वाली बर्थ पर नज़र गड़ाई वहाँ भी एक अंकल जी हाथ में उर्दू का अख़बार लिए औंधे लेते पड़े थे बिलकुल मेरे जैसे ही सुस्त, पेट उनका कुर्ता अब नहीं तब फाड़ कर  चीख़ पड़े की मुझे कसरत कराओ, पजामे का नाड़ा बर्थ से लटक रहा था घड़ी के काँटे के जैसे और विनती कर रहा था कि चीचा मुझे पजामे के बाहर नहीं भीतर ।  पुरानी दिल्ली से एक नव युवक यानी के मैं और एक पूराने चीचा यानी वो जो सामने अख़बार चाटने में लगे थे दोनों चढ़े थे। लड़की ने थोड़ी देर इधर उधर क़दमचहली की और फिर पूछा क्या आप मेरा ये बैग ऊपर रख दोगे। मैने देखा क्या, मैं तो प्रतीक्षा ही कर रहा था कि ये कब इस सहायता केंद्र से सम्पर्क करे और सहायता में बहुत घमंड होता है याद रखना जब
Short  Story   "पुश्तैनी हवेली"  पुश्तैनी  हवेली  जिसके हर कोने पे कायी   जमी पड़ी है।  दरों दीवारों पे उम्मीद की दरारें हैं ।  धुँधली  रोशनी के साये और छांव के निशाँ हैं।  परछाइयों के   पैरों   के साएँ , आहटों के शोर हैं ।  सन्नाटों का कोहरा  एकांत में शांत बुत बना खड़ा  है।  रात का बिस्तर सिकुड़ कर जमी पे पड़ा है ।  बरसात की बूँदो के आँसू रोते-रोते निहार रहे हैं। हर  इक दरवाज़ों पे रिश्तों की  हथेलियों की थपथपाहटे हैं ।  मेरी नानी माँ  की पुश्तैनी हवेली  ऐसे ही  खड़ी   है। बचपन में लड़खड़ाते क़दम और तोतली ज़बान में गिरते पड़ते, दौड़ते हुए नानी की बाहों से लिपट जाते। माँ की गोद से भी ज़्यादा प्यारी नानी माँ की बाहें। उनके आगे पीछे बस घूमते रहो दिनभर। नानी माँ के सुख दुःख के कारण उनके नाती और नतनी। आँख और जिगर के टुकड़े। जैसे-जैसे हम बड़े हुए नानी माँ बुज़ुर्ग होती गयी जिसका एहसास मुझे तब हुआ जब वो अपने अंतिम समय में पहुँची। उनको खोने का सत्य सामने था लेकिन फिर भी मुझे उसे मानना नहीं था। उनको खोने की पीड़ा अत्यंत ही दर्दनाक और